Friday, April 5, 2019

बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की एक पर्सनल बीजेपी भी है नाम है ABM

Assocation of Billion Minds, ABM, यह वो संगठन और नेटवर्क है जो आज बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह की पर्सनल टीम की तरह काम करती है। बीजेपी अपने आप में एक विशाल संगठन है। निष्ठावान कार्यकार्ताओं की फौज है। इसके बाद भी पार्टी के समानांतर अध्यक्ष की मर्ज़ी से काम करने वाला ऐसा नेटवर्क है जिसके बारे में ज़्यादातर कार्यकर्ताओं को पता भी नहीं होगा। जिन्हें पता होगा उन्हें बस इतना कि यह अमित शाह की पर्सनल टीम है।

हफपोस्ट न्यूज़ वेबसाइट के संपादक अमन सेठी ने महीनों सैंकड़ों पन्नों के दस्तावेज़ की खाक छानने और कई लोगों से मिलने के बाद पाया है कि 166 लोगों की यह टीम देश के 12 जगहों पर अपना दफ्तर रखती है। इसका काम है व्हाट्स एप के लिए मीम तैयार करना, चुनावों के समय न्यूज़ वेबसाइट की शक्ल में प्रोपेगैंडा वेबसाइट लांच करना, बदनाम करने और अफवाह फैलाने का अभियान चलाना, अपने नेता के समर्थन में फेसबुक पेज चलाना, राजनीतिक अभियान चलाना जैसे भारत के मन की बात और मैं भी चौकीदार।
इस लंबी रिपोर्ट को इसलिए भी पढ़ें ताकि आप यह देख सकें कि हमारे राजनीतिक दल किस तरह से बदल रहे हैं। वे दिनों दिन रहस्य होते जा रहे हैं। आपके सामने बीजेपी का एक कार्यकर्ता खड़ा है। जिसे आप जानते हैं, पहचानते हैं। गले लगाते हैं और नाराज़गी ज़ाहिर करते हैं। मगर अब वो सिर्फ एक इंसानी रोबोट है। बल्कि वो कुछ भी नहीं है। प्लास्टिक के खिलौने की तरह उसका काम है चौराहे पर लगाए गए शामियाने या किसी धरना प्रदर्शन में जाकर खड़े हो जाना चाकि लगे कि वहां कोई पार्टी है। दरअसल अब पार्टी वहां नहीं हैं। पार्टी वहां हैं जहां ABM जैसे नेटवर्क हैं।
दुनिया भर में ऐसे गुप्त संगठन जिनके पास डेटा को समझने और हासिल करने की ताकत होती है, अब चुनावों को प्रभावित कर रहे हैं। अभी ही ये नेटवर्क जीवंत कार्यकर्ताओं से लैस पार्टी को विस्थापित कर चुके हैं। पार्टी इनके ही बनाए प्लान के हिसाब से काम करती है। काम में आप यह शामिल करें कि कार्यकर्ता सिर्फ इनके बनाए व्हाट्एस एप मीम को फार्वर्ड करने और फेसुबक पेज को लाइक करने का एजेंट बनकर रह जाता है।
यह बदलाव सभी दलों में धीरे-धीरे आ रहा है मगर बीजेपी के पास संसाधन बहुत है इसलिए उसका नेटवर्क कहीं ज़्यादा परिपक्व हो चुका है। पार्टी के भीतर भी कुछ नेता छोटे स्तर पर ऐसे नेटवर्क बना रहे हैं। अगली बार जब वर्चस्व की लड़ाई होगी तो इन नेताओं के बीच इन नेटवर्क की भूमिका ख़तरनाक हो जाएगी। हफ पोस् की इस रिपोर्ट को ज़रूर पढ़िए कि कैसे 2014 से पहले एक एन जी ओ बनाया जाता है। तीन साल वह बेकार रहता है फिर उसका नाम बदल कर Assocation of Billion Minds, ABM कर दिया गया। इसका कुछ भी पब्लिक में नहीं है। कानून के नियम ऐसे हैं जिसका लाभ उठाकर इस तरह का संगठन बनाया गया है। आप नहीं जान सकेंगे कि इसे चलाने के लिए कौन पैसा दे रहा है। बीजेपी पैसा दे रही है तो वह भी जान सकेंगे जिससे कि इस ख़र्च को आप चुनावी ख़र्च में जोड़ा जा सके।
अमन सेठी की यह रिपोर्ट मौजूदा समय में राजनीतिक दलों के भीतर फाइनांस की तस्वीर को भी सामने लाती है। इनका एक ही काम है। मुद्दों को गढ़ना, हवा बनाना और पार्टी या व्यक्ति के हाथ में सत्ता सौंप देना ताकि वह फिर सत्ता में आकर बिजनेस घरानों पर सरकारी खज़ाना लुटा सके। सोचिए अमित शाह से संबंधित एक ऐसी टीम है जो फेक न्यूज़ फैलाती है। फर्ज़ी वेबसाइट लांच करती है। यह नए दौर की अनैतिकता है। जिसके बारे में सामान्य पाठकों को पता नहीं है।
अंग्रेज़ी में इस रिपोर्ट को आप ध्यान से पढ़ें। हो सके तो दो बार पढ़ें।
हिन्दी के एक पाठक ने सवाल किया कि हिन्दी में ऐसी रिपोर्ट क्यों नहीं होती। जवाब में कई कारण बता सकता हूं लेकिन हिन्दी में ऐसी रिपोर्ट नहीं हो सकती है। हिन्दी पत्रकारिता का मानव संसाधन औसत से 99 अंक नीचे है। शून्य से एक पायदान ऊपर मगर अहंकार में सबसे ऊपर। आप पिछले पांच साल के दौरान एक खबर नहीं बता सकते हैं जो इस तरह की हो और उसे किसी हिन्दी पत्रकार ने की हो।
भविष्य के हिन्दी पत्रकारों के लिए यह सवाल बहुत शानदार है कि हिन्दी में ऐसी रिपोर्ट क्यों नहीं होती है। जवाब के लिए ज़रूरी है कि जो छात्र हिन्दी पत्रकारिता पढ़ रहे हैं और वहां पढ़ने के लिए कुछ नहीं है, उन्हें कम से कम ऐसी रिपोर्ट को बार बार पढ़नी चाहिए और इस पर नोट्स बनाने चाहिए। मुझे पूरा विश्वास है कि कोई न कोई बंदा निकलेगा तो अमन सेठी के स्तर की पत्रकारिता करेगा। आने वाले समय में वही अच्छा पत्रकार बनेगा जो कानून, डेटा और अकाउंट की बारीक समझ रखता हो। मुझे कोई कंपनी के पेपर्स दे जाता है तो हाथ-पांव फूल जाते हैं। समझ ही नहीं आता है कि कहां क्या हो रहा है। कैसे उन कागज़ात से चोरी पकड़नी है।
फिलहाल, अगर आप पाठक हैं तो हफिंगटन पोस्ट के इस लंबी रिपोर्ट को पढ़िए। अंग्रेज़ी नहीं आती है तब भीप पढ़िए। समझ आएगी। जानने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। आपके लिए यह जानना ज़रूरी है कि हमारे राजनीतिक दल किस तरह रहस्यमयी और निजी संगठनों की जेब में चले गए हैं जिसमें हाथ सिर्फ एक या दो ही नेता डाल सकते हैं। लाखों कार्यकर्ताओं को अंधेरे में रखा जा रहा है ताकि वे सिर्फ नारे लगाने की मशीन बने रहें। एक मतदाता को यह जानने के लिए पढ़ना चाहिए कि वह जिन मुद्दों को देश के भविष्य के लिए समझता है क्या वे मुददे वास्तिवक हैं या उसके अपने मुद्दों को गोबर से ढंक देने के लिए गढ़े गए हैं। अच्छी रिपोर्ट वही होती है जिसे पढ़ने में सबका भला हो।

Sunday, January 6, 2019

प्यास नगर बड़ा प्यारा नगर

नमस्कार! मैं पं. रवि शास्त्री
सबसे पहले तो आप सभी से हाथ जोड़कर क्षमा चाहता हूँ, आप लोग भी सोच रहे होंगे बड़ा अजीब आदमी है ये तो ईद का चांद ही हो गया बड़ा लंबा इंतजार कराने लग गया! तो दोस्तों कुछ व्यस्तताओं के चलते आपको बीच में कहानी नहीं दे सका इसका मुझे खुद बहुत खेद है। चलिए शुरू करते हैं जब मैंने गांव से शहर की ओर पलायन किया था तो ये शहर बड़ा ही नीरस और बेजान सा प्रतीत होता था। हर कोई अपने आप में मस्त, सभी अपनी अपनी उलझनों में उलझे हुए से दिखाई देते। किसी को किसी से कोई मतलब नहीं फिर भी रिश्ते सिर्फ मतलब से ही बनाते हैं! जब नया नया आया था तो किसी से कोई पहचान नहीं, ना कोई दोस्त ना संगी ना साथी। हममें से ना जाने रोज़ कितने लोग मन में कुछ बनने की इच्छा लिए गांवों से शहरों की ओर पलायन करते हैं और ज़िंदगी की इस उथल पुथल में सब यहीं के होकर रह जाते हैं! बहुत कम लोग ही वापस लौट पाते हैं। हां लेकिन एक बात तो है यहां सभी को अपने हिसाब से ज़िंदगी जीने की आज़ादी है, गांव क्या सोचेगा समाज क्या कहेगा इसकी फिकर यहाँ किसी को नहीं। यहाँ सबको खुले आम अपने प्यार का इज़हार करने की आज़ादी है किसी के ऊपर कोई बंदिश नहीं। मगर मैं सोचता हूँ अगर ऐसा है तो फिर ये शहर इतना प्यासा क्यूं है?
तो आइए अब आगे बढ़ते हैं, “अरे कहानी का नायक तो मैं हूँ ना? हुडको प्लेस, एंड्रयूज गंज में उसके पॉश कॉलोनियों में से एक, साउथ दिल्ली का पॉश इलाका। ये जगह आयुर्विज्ञान नगर और साउथ एक्सटेंशन पार्ट 2 से सटा हुआ है, यह इलाका एकदम सुरक्षित है और बाहर से सुंदर दिखता है, लेकिन तथ्य यह है कि कुछ फ्लैटों के साथ कई मुद्दे हैं।"
टाइप 4 फ्लैटों में से कुछ खाली हैं क्योंकि यहाँ रहने वालों को ज़रा भी धूप नहीं मिलती है और उनके गलियारों में कृत्रिम रोशनी भी नहीं है। कॉलोनी के रखरखाव का ध्यान रखने वाले केंद्रीय लोक निर्माण विभाग के सूत्रों ने कहा कि ज्यादातर अधिकारी अपने परिवार के साथ यहां आते हैं, जैसे ही वे इन समस्याओं से अवगत होते हैं, वे वहां से चले जाते हैं। हालांकि, कुछ लोग इस क्षेत्र के प्राइम लोकेशन होने के कारण इन मुद्दों के बावजूद बने हुए हैं। हुडको प्लेस कॉलोनी, जिसे ग्लिटज़ी सरकारी क्वार्टर के रूप में विकसित किया गया था, एक सीमित स्थान पर फैंसी घर बनाने की पहली पहल थी। सरकारी अधिकारियों के लिए कुल 1,000 अपार्टमेंट हैं। जो प्रमुख सचिव और संयुक्त सचिव के पदों पर अधिकारी होते हैं उन्हें ये घर आवंटित किए जाते हैं। इन प्राइम लोकेशन वाले सरकारी फ्लैटों की कीमत 4 करोड़ रुपये (1 BHK) से 12 करोड़ रुपये (4BHK) के बीच है। इन फ्लैट्स के एक छोर पर एक मॉल है ‘अंसल प्लाजा’ ये फ्लैट्स 35 एकड़ ज़मीन के ऊपर बनाए गए हैं। बाकी की बची खाली जमीन पर बड़ा ही शानदार पार्क डेवेलप किया गया है, आस पास के लोग अक्सर यहाँ जॉगिंग करने, कसरत करने, मीटिंग करने अथवा यूँही घूमने फिरने आ जाया करते हैं। हमारे घर और इस जगह के दरमियां पुलिस लाइन भी पड़ती है काफी सुलझे हुए लोग हैं कइयों से तो दोस्ती भी हो गई है, उन्हीं से सुना है कि उन लोगों को भी बहुत जल्द अपने क्वार्टर्स खाली करके दूसरी जगह शिफ्ट होना पड़ेगा पूछने पर वजह बताई गई कि इनको तोड़कर आलीशान चार चार मंजिला इमारतें बनाई जाएंगी। मैं साउथ एक्स. में रहता हूँ ये जगह हमारे मकान से सिर्फ पांच मिनट की दूरी पर है इसलिए अक्सर मैं भी वहाँ चला जाता हूं, सच में बड़ा ही सुकून मिलता है इस जगह पर आकर। कभी कोई ऑर्केस्ट्रा अपनी परफॉर्मेंस की तैयारी कर रहा होता है कभी कभी कोई मॉडल पोर्टफोलियो के लिए शूट करा रही होती है, तो कभी कोई म्यूजिक बैंड रिहर्सल करता हुआ मिलता है, कभी कोई एड ऐजेंसी किसी प्रोडक्ट के प्रोमोशन के लिए शूट करती हुई दिखाई देती है। मगर इस सब के बावजूद दूर दूर तक फैले हुए इस पार्क में कई जगह ऐसी भी हैं जहाँ एकांत पसरा हुआ रहता है और करवटे बदल बदल कर वक्त के बदल जाने का इंतजार करता है। इसी जद्दोजहद में कभी कभी मैं भी उस ओर निकल पड़ता हूँ, वहाँ का नज़ारा कुछ और ही होता है। कुछ प्रेमी युगल हाथों में एकदूसरे का हाथ पकड़े सैर करते हुए दिखाई पड़ते हैं तो कई एकदूसरे की गोद में सर रखकर एकदूजे में खो जाने का दम भरते हैं। कहीं पर कुछ बूढ़ी औरतें घर परिवार से इतर बहू बेटा, बेटी दामाद, सास ससुर, देवरानी जेठानी और ननदों को कैसे ठीक किया जाए इस पर ज्ञान बांट रही होती हैं। तो कई बुजुर्ग समाज सुधार जैसे भीषण विषय की उठा पटक को लेकर किसी गंभीर मुद्दे पर बड़ी गंभीरता पूर्वक चिंतन मनन करने की कोशिश कर रहे होते हैं। कहीं कुछ मिडल एज युवा आज की दहकती हुई राजनीतिक उथल पुथल पर अपनी अपनी थ्योरी को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने की बहस में उलझे हुए से लगते हैं। कहीं क्रिकेट खेलते युवा जिनमें अब युवापना कुछ कम बचा है अभी भी अपना पूरा दमखम क्रिकेट में पेलने पर तुले हुए हैं। कहीं कुछ कमसीनें अपनी कमर पतली करने की होड़ में जुटी हैं तो कुछ बच्चे चिड़ी बल्ला, बॉलीबॉल फुटबॉल खेलने में मस्त हैं। कहीं कुछ बच्चे मार्शल आर्ट्स की ट्रेनिंग ले रहे हैं, और आज का नौजवान जो सही मायने में आज का युवा है अरे वो कहाँ है? मैंने अपने चारों ओर नज़रें दौड़ाई तो बड़े बुज़ुर्ग मध्यम युवा कम युवा और बच्चे सब दिखाई दे रहें हैं मगर सही मायने में आज का युवा दिखाई नहीं दे रहा आखिर कहां खो गया आज का युवा? फिर एकाएक उस झाड़ी पर मेरी नज़र ठहर गई जहाँ आज का युवा दुबका बैठा था सोचा चलकर ज़रा पूछ लिया जाए कि हम तो तुमसे आस लगाए बैठे हैं कि तुम हमें इस महंगाई भुखमरी बेबसी लाचारी नेताओं के भ्रष्टाचार और उनके अंधे अनुयायियों के अत्याचार से मुक्ति दिलाओगे और तुम यहाँ दुबके बैठे हो मैंने मन ही मन ये सोचते हुए कदम बढ़ाया ही था कि अकस्मात उस झाड़ी में से एक बाला भी प्रकट हुई?! मैंने अवाक खड़े होते हुए दूसरी ओर नजरें फेर ली तो वहां पर भी बिलकुल सेम टू सेम फ़िल्म चल रही थी। अब यहाँ पर अपना दिमाग ज़रा संभाल कर लगाइएगा, क्योंकि हम राइटर ज़रा दूजी किस्म के हैं! यहाँ ‘वो’ वाली फिल्म की बात नहीं हो रही अनुनय विनय की बात हो रही है एकदूसरे को समझने समझाने की बात हो रही है,घरवालों को अभी बताया जाए ना बताया जाए उनको कैसे मनाया जाए रूठने मनाने की बात हो रही है और आगे चलकर कैसे जीना मरना है जीवन यापन कैसे करना है कुछ बनने का जो लक्ष्य तय किया है उसको हासिल करने में अभी और कितना वक्त लगेगा, और कितना एक दूसरे से यूँही छुप छुपकर मिलना पड़ेगा, कितने दिन अभी और दूर रहना पड़ेगा इसकी बात हो रही है। थोड़ा आगे गया तो एक तरुणी हिरनी के जैसे अपने साथी के साथ उछल कूद मचा रही थी कभी इस बगल कभी उस बगल कोई अपनी गोद में प्रियतम का सर रखती तो कोई प्रियतम की गोद में अपना सर। कुल मिलाकर सब दुनियादारी से बेपरवाह एकदूजे में बिजी हैं और हो भी क्यों ना आखिर ज़िंदगी है ही कितने दिन की। अब मुझे भलीभांति समझ में आ चुका था कि ये देश इतनी तेज़ी से तरक्की कैसे कर रहा है! एक मैं हूँ जो इन सबको निःशुल्क निहार रहा है वो भी टकटकी लगाए और अंदर ही अंदर मंद मंद मुस्काए जा रहा हूँ। आखिर कहानी का नायक तो “मैं हूँ ना” याद है ना? पं. रवि शास्त्री नाम तो सुना ही होगा। हुम्म!